आपने नॉमिनी शब्द तो सुना होगा। जब आप किसी बैंक में अकाउंट खोलने जाते हैं या फिक्स डिपॉजिट करते हैं तो आपका बैंक नॉमिनी पूछता है। अकाउंट ओपनिंग फॉर्म में नॉमिनी भरना जरूरी होता है। इसी तरह पीएफ अकाउंट म्यूचुअल फंड प्रॉपर्टी या शेयर खरीदने पर आपसे नॉमिनी पूछा जाता है। लाइफ इंश्योरेंस पॉलिसी फॉर्म में भी नॉमिनी कॉलम होता है। आप में ज्यादातर लोग अपने करीबी को नॉमिनी बनाते हैं फिर चाहे वो आपका पति या पत्नी हो बेटा या बेटी हो या फिर मां-बाप या फिर कोई भी दूसरा करीबी रिश्तेदार हो।
आपके पास एक से ज्यादा नॉमिनी चुनने की भी आजादी होती है। आप में से ज्यादातर लोगों को यह गलतफहमी होगी कि भला शख्स के ना रहने पर सारी प्रॉपर्टी या बैंक खातों के पैसे या इंश्योरेंस क्लेम नॉमिनी को मिल जाएंगे। जबकि हकीकत में ऐसा नहीं है। कानून के मुताबिक नॉमिनी केवल उस संपत्ति का केयरटेकर होता है यानी वो केवल उन पैसों या प्रॉपर्टी को मैनेज कर सकता है ना कि कानूनी उत्तराधिकारी होगा। हालांकि अगर आपने जिसे नॉमिनी चुना है अगर वह कानूनी वारिस भी है तो उसे प्रॉपर्टी या पैसों पर दावा करने का पूरा अधिकार है।
चार दशक पहले नरेल सुप्रीम कोर्ट ने एक फैसला सुनाया था। इसमें नॉमिनी और कानूनी उत्तराधिकारी यानी कि वारिस के अधिकार बताए गए थे। यह मामला था सर्वती देवी बनाम उषा रानी का। अब इस मामले को समझते हैं और साथ ही सुप्रीम कोर्ट ने क्या डिसीजन दिया था यह भी जानेंगे।
यह मामला हैउत्तर प्रदेश का। क्योंकि उस वक्त उत्तराखंड अलग स्टेट नहीं था। यहां एक शख्स थे जगमोहन स्वरूप जिन्होंने अपने जीवन काल में -100 की दो लाइफ इंश्योरेंस पॉलिसीज ली। इन इंश्योरेंस पॉलिसीज में उन्होंने अपनी पत्नी उषा देवी को नॉमिनी बनाया था। 15 जून 1967 को जगमोहन की मौत हो जाती है। हालांकि जगमोहन कोई वसीयत छोड़कर नहीं जाते हैं। जिससे उसकी संपत्ति का उसके आश्रितों पर बंटवारा किया जा सके। लिहाजा उसकी इंश्योरेंस पॉलिसी से मिलने वाली ब्याज पर उसकी पत्नी उषा देवी पूरा हक जताती है। उषा के दावे पर जगमोहन की मां सर्वती देवी और उसका माइनर बेटा आलोक आपत्ति जताते हैं और उसके खिलाफ देहरादून सिविल कोर्ट में मुक मुमा दायर करवा देते हैं। लेकिन ट्रायल कोर्ट में यह कहते हुए मुकदमा खारिज कर दिया गया कि बतौर नॉमिनी उषा देवी पूरी रकम की हकदार है। इलाहाबाद हाई कोर्ट भी ट्रायल कोर्ट के फैसले को बरकरार रखता है। अब मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचता है। वहां भी मामले की सुनवाई चलती है। 6 दिसंबर 1983 को सुप्रीम कोर्ट इस मामले पर फैसला सुनाता है।
हम आपको उस फैसले के अहम बिंदु बताते हैं। कोर्ट कहता है बीमा अधिनियम की धारा 39 के तहत नॉमिनी को जीवन बीमा पॉलिसी की रकम का पूरा अधिकार नहीं मिलता है। धारा 39 उत्तराधिकारी कानून को नहीं बदल सकती। बीमा अधिनियम की धारा 38 के तहत जब पॉलिसी ट्रांसफर की जाती है या रकम का भुगतान किया जाता है तो नॉमिनेशन अपने आप कैंसिल हो जाता है। सुप्रीम कोर्ट ने लोअर कोर्ट और इलाहाबाद हाई कोर्ट के फैसले को रद्द करते हुए बीमा राशि को तीन भागों में बांटने का आदेश दिया। इस फैसले के तहत उषा देवी सर्वती देवी और माइनर आलोक को इंश्योरेंस पॉलिसी की 1 तिहाई रकम मिली।
(ये आर्टिकल में सामान्य जानकारी आपको दी गई है अगर आपको किसी भी उपाय को apply करना है तो कृपया Expert की सलाह अवश्य लें)
Post a Comment