कोई व्यक्ति अगर कहता है कि मौत से उसे डर नहीं लगता तो या तो वह झूठ बोल रहा है या फिर गोरखा है। फील्ड मार्शल जनरल एसएचएफ जे मानिक शह की कहीं यह बात आज भी उतनी ही सच है।
गोरखा सिपाहियों की वीरता की कहानियां पूरी दुनिया में मशहूर हैं। पाकिस्तान और चीन तक इन्हें अपनी सेना में शामिल करना चाहते हैं। यहां तक कि भारत की गुलामी के वक्त इनकी वीरता के आगे अंग्रेज भी नतमस्तक हो गए और बकायदा इनके नाम पर एक रेजीमेंट बना डाली।
आइए जान लेते हैं Gorkha Regiments बनने की पूरी कहानी
यह साल 1814 की बात है। भारत की सत्ता पर काबिज अंग्रेजों की कंपनी यानी ईस्ट इंडिया कंपनी पड़ोसी देश नेपाल पर भी कब्जा करना चाहती थी। भारत में तो उसकी जड़ें गहरी हो ही रही थी लेकिन धीरे-धीरे अंग्रेजों ने सरहदों की ओर खिसकना शुरू कर दिया था। 31 अक्टूबर को ब्रिटेन के 3500 सैनिकों ने गोरखाओ के किले पर हमला कर दिया। जो उत्तराखंड की राजधानी देहरादून के पास था।
खलगा नाम का यह किला आज भी एक महीने तक चले भीषण ला पानी युद्ध का गवाह रहा है। अंग्रेजों के पास भारी भरकम फौज थी जिसके पास तोप और गोला बारूद थे। तो उनके सामने गोरखा थे जिनके हाथों में धनुष बान खुखरी और पत्थरों से बने हथियार थे। इसके बावजूद केवल 600 गोरखा सैनिकों ने नालापानी के पहाड़ पर ब्रिटेन की सेना के तीन हमलों को नाकाम किया। इसमें नेपाली बच्चों और महिलाओं ने भी अपने जवानों का साथ दिया और अंग्रेजों से दो-दो हाथ कर डाले।
बार-बार की कोशिशें नाकाम होने पर साल भर में ही अंग्रेजों को समझ आ गया था कि यह हमला उल्टा पड़ रहा है। हालांकि अंग्रेजों की सेना में जवानों की ज्यादा संख्या थी और उनके पास धन की भी कोई कमी नहीं थी। ऐसे में गोरखा हों के लिए ज्यादा समय तक टिक पाना मुश्किल था। शुरुआती दौर में गोरखा रेजीमेंट के पास धनुष बान खुखरी और पत्थरों से बने हथियार थे। इसके बावजूद अंग्रेजों की सेना को बड़ा नुकसान हुआ।
बीबीसी के एक रिपोर्ट में बताया गया है कि इस युद्ध में अंग्रेजों की सेना के मेजर जनरल रॉबर्ट रोलो, जिले एसपी समेत 800 सैनिक मारे गए थे। इस पर ब्रिटिश सेना ने खलगा के किले में पानी की आपूर्ति रोक दी थी और से गोरखा हों की परेशानी बढ़ने लगी थी। नेपाली सेना के कमांडर बलभद्र कुवर ने खुद नाला पानी छोड़ दिया। उनके अपनी सेना के साथ जाने के बाद ईस्ट इंडिया कंपनी ने नालापानी में दो स्मारक बनवाए थे। एक पर अंग्रेजों की सेना के मेजर जनरल जिल एसपी का नाम लिखा गया और दूसरे पर बलभद्र कुवर का।
बलभद्र कुवर से कैसे प्रभावित हुए थे अंग्रेजो?
बलभद्र कुवर को अंग्रेजों ने वीर दुश्मन की उपाधि दी थी। इस युद्ध के बाद ही साल 1815 में ईस्ट इंडिया कंपनी और नेपाल के राजा के बीच सुगल की संधि हुई और इसके मुताबिक नेपाल के कुछ हिस्सों को ब्रिटिश भारत में शामिल किया गया। काठमांडू में एक बटि प्रतिनिधि की नियुक्ति की गई। गोरखा हों की वीरता से प्रभावित अंग्रेजों ने इसी साल गोरखा रेजीमेंट की शुरुआत की। तब इसका नाम नसीरी रेजीमेंट था। बताया जाता है कि जो टोपी आज गोरखा सैनिक पहनते हैं। वह सबसे पहले बलभद्र कुंवर ने ही पहनी थी। आज भी गोरखा सैनिक अपने साथ ये टोपी और खुखरी रखते हैं। बलभद्र कुवर के बारे में बीबीसी की रिपोर्ट में बताया गया है कि साल 1824 में अफगानिस्तान में अंग्रेजों की ओर से लड़ाई के दौरान बलभद्र कुवर शहीद हुए।
(ये आर्टिकल में सामान्य जानकारी आपको दी गई है अगर आपको किसी भी उपाय को apply करना है तो कृपया Expert की सलाह अवश्य लें) Share
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